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उत्तराखंड की पर्यावरणीय सेहत को लेकर अच्छी खबर, स्वच्छ आबोहवा के लिए जाना जाएगा ये सीजन


नवीन उनियाल, देहरादून: उत्तराखंड में पर्यावरणीय सेहत के लिए यह साल बेहद खास रहा है. अभी तक न केवल वायुमंडल में साफ आबोहवा लोगों की सेहत के लिए फायदेमंद रही है, बल्कि पूरे पर्यावरणीय इकोसिस्टम को ही इस सीजन ने बड़ी राहत दी है. नतीजतन इन स्थितियों पर नजर रखने वाले संस्थानों के आंकड़े भी बेहतर पर्यावरणीय सेहत के गवाह बन रहे हैं.

उत्तराखंड में गर्मियों का सीजन न केवल सूरज की तपिश के चलते लोगों को परेशान करता है, बल्कि यही वो समय होता है, जब पर्यावरण की सेहत सबसे ज्यादा नासाज रहती है. वायुमंडल में नमी की कमी और शुष्क मौसम के बीच AQI (एयर क्वालिटी इंडेक्स) काफी ऊपर पहुंच जाता है. खास तौर पर पीएम यानी पर्टिकुलर मैटर PM 2.5 और PM 10 बेहद ज्यादा रहता है. स्थिति ये रहती है कि छोटे बच्चे और बीमार लोगों के लिए घर से बाहर की आबोहवा खतरनाक स्तर पर पहुंच जाती है.

उत्तराखंड की पर्यावरणीय सेहत को लेकर अच्छी खबर (वीडियो फोटो- ETV Bharat)

कितना खतरनाक हो जाता है खुले में सांस लेना? एयर क्वालिटी इंडेक्स दिल्ली में कई बार 300 या इसके ज्यादा भी हो जाता है. उत्तराखंड की बात करें तो यहां भी एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) कई बार 250 से 300 के बीच तक पहुंच जाता है. आपको हैरानी होगी कि एयर क्वालिटी इंडेक्स का यह आंकड़ा अनहेल्दी और सीवियर स्थिति में रिकॉर्ड होता है. इसी तरह PM 2.5 करीब 60 या इससे ऊपर भी रहता है, जिसे खराब स्थिति में गिना जाता है. जबकि, PM 10 भी 100 से अधिक रहकर कमजोर (Poor) स्थिति को बयान करता है.

पीएम (PM 2.5 और PM 10) को जानिए: PM 2.5 और PM 10 का मतलब वायुमंडल में उड़ने वाले वो पार्टिकल हैं, जिन्हें हम ठोस, तरल एवं धूल के कणों के रूप में जानते हैं. वायुमंडल में उनकी मौजूदगी इंसानों के लिए खतरनाक हो सकती है. खासकर बच्चों और गंभीर रोग से पीड़ित मरीजों के लिए. वायुमंडल में इनकी अधिकता ऐसे मरीजों को ज्यादा तकलीफ दे सकती है, जो सांस के रोग से पीड़ित होते हैं.

कभी ऐसी नजर आती थी दून की फिजाएं (फाइल फोटो- ETV Bharat)

हालांकि, इस सीजन यानी साल 2025 में जनवरी से लेकर अभी तक आंकड़े इससे कुछ अलग नजर आ रहे हैं. उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से मॉनिटर की जा रही पर्यावरण की स्थिति भी पहले से जुदा है. अब ये भी जान लेते हैं कि इस समय एयर क्वालिटी इंडेक्स के आंकड़े किन स्थितियों को बयां कर रहे हैं?

कैसी है उत्तराखंड की आबोहवा? उत्तराखंड में फिलहाल 15 जून को एयर क्वालिटी इंडेक्स 88 पर रिकॉर्ड किया गया है, जो कि अच्छी कैटेगरी में तो नहीं आता, लेकिन खराब की स्थिति में भी नहीं है. AQI 88 होना मॉडरेट कैटेगरी (Moderate Category) में रखा गया है. अब बात PM 2.5 की करें तो प्रदेश में इसका आंकड़ा 24 है यानी PM 2.5 को लेकर राज्य की स्थिति अच्छी है. उधर, PM 10 के मामले में आंकड़ा 70 रिकॉर्ड हुआ है, जो मॉडरेट कैटेगरी में आता है.

Environmental health of Uttarakhand

देहरादून के बाजार में लोग (फाइल फोटो- ETV Bharat)

पर्यावरण के लिए मौजूदा स्थिति क्यों मानी जा रही मुफीद? भले ही इस बार ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम में बदलाव की बात कही गई हो, लेकिन इस सीजन में लगातार कुछ समय बाद होने वाली बारिश के कारण पर्यावरण को भी संरक्षण मिला है. दरअसल, प्रदेश में इस बार गर्मी के मौसम के दौरान भी बारिश देखने को मिलती रही. इसके चलते वायुमंडल में मौजूद प्रदूषण या धूल के कारण बारिश के साथ जमीन पर आ गए, जिससे हवा में स्वच्छता लौट आई.

बात सिर्फ वायुमंडल में एक्यूआई (AQI) के बेहतर होने तक ही सीमित नहीं है. यह सीजन उत्तराखंड के लिए दूसरे मायनों में भी काफी अहम रहा. ऐसा इस बार वन क्षेत्र में वनाग्नि की घटनाओं में आई कमी के कारण माना गया. जंगलों में आग कम लगने से वन क्षेत्र बच सके, जो बेहतर पर्यावरण के लिए बड़ी राहत थी.

Uttarakhand Forest Fire

उत्तराखंड में वनाग्नि की घटनाएं (फोटो- ETV Bharat)

जंगलों में आग को लेकर क्या हैं मौजूदा आंकड़े? इस समय 15 जून तक के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो फॉरेस्ट फायर सीजन में कुल 4 महीनों के दौरान मात्र 216 आग लगने की घटनाएं रिकॉर्ड की गई. जिसमें 234.45 हेक्टेयर क्षेत्र प्रभावित हुआ. इस सीजन किसी भी व्यक्ति की आग लगने के कारण मौत नहीं हुई. हालांकि, दो लोग घायल हुए हैं. पिछले सालों की तुलना में देखें तो यह घटनाएं कई गुना कम रही हैं.

इन आंकड़ों ने इस सीजन के दौरान वनों के बचने की तरफ इशारा तो किया है, लेकिन ये केवल जंगलों के सुरक्षित रहने तक की ही बात नहीं है. बल्कि, इसके कारण हिमालय में मौजूद ग्लेशियर की सेहत भी खराब होने से बची है. दरअसल, जंगलों के जलने से निकलने वाला कार्बन हवा में उड़कर ग्लेशियर तक पहुंच जाता है. ग्लेशियर के तेजी से पिघलने का कारण बनता है. इस तरह देखा जाए तो इस बार जंगलों के ना जलने से ग्लेशियर भी बचे हैं और भविष्य में पानी को लेकर संभावित खतरे से भी बचाव हुआ है.

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