कॉम्पैक्ट ट्रांसहोराइजन संचार प्रणाली का इनोवेशन (फोटो- ETV Bharat)
धीरज सजवाण
देहरादून: आर्मी ऑपरेशन के दौरान दुश्मन के इलाकों में या फिर ऐसे जगहों पर जहां कम्युनिकेशन का कोई सिस्टम ना हो, वहां पर कम्युनिकेशन के लिए अब तक सैटेलाइट एकमात्र विकल्प रहता था, लेकिन टेक्नोलॉजी के इस बढ़ते दौर में सैटेलाइट हैक करना है या फिर सैटेलाइट के सिग्नल को रोकना भी संभव है, लेकिन देहरादून स्थित डीआरडीओ की डील ने खास टेक्नोलॉजी ईजाद की है, जो अपने आप में बेजोड़ है. जो एक तरह का ऐसा कम्युनिकेशन सिस्टम है, जो हर चुनौती से पार पा सकता है.
दरअसल, देहरादून स्थित रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) की रक्षा इलेक्ट्रॉनिक्स अनुप्रयोग प्रयोगशाला (DEAL) ने एक ऐसी टेक्नोलॉजी विकसित की है, जिसके लिए हमें न तो किसी मोबाइल नेटवर्क की जरूरत है और ना ही सैटेलाइट की. इतना ही नहीं संकरी और ऊंचे पहाड़ होने के बावजूद भी यह टेक्नोलॉजी अपने आप में पोर्टेबल कम्युनिकेशन बनाता है, जिसे रिसर्च एंड डेवलपमेंट करके और भी कॉम्पैक्ट बना दिया गया है. यह सिस्टम कॉम्पैक्ट ट्रांसहोराइजन कम्युनिकेशन सिस्टम (CTCS) है. जो काफी खास है.
कॉम्पैक्ट ट्रांसहोराइजन कम्युनिकेशन सिस्टम के बारे में जानिए (वीडियो- ETV Bharat)
क्या है CTCS टेक्नोलॉजी? बता दें कि देहरादून स्थित डीआरडीओ के डील में कम्युनिकेशन से संबंधित रिसर्च किया जाता है. इसी कड़ी में सीटीसीएस टेक्नोलॉजी विकसित की है. सीटीसीएस यानी कॉम्पैक्ट ट्रांसहोराइजन कम्युनिकेशन सिस्टम (Compact Transhorizon Communication System) एक मेन पोर्टेबल कम्युनिकेशन टर्मिनल है, जो ट्रोपोस्फीयर के जरिए रेडियो पाथ का इस्तेमाल करता है, फिर होराइजन (क्षितिज) से परे कम्युनिकेशन प्रोवाइड करता है.
सीटीसीएस (CTCS) पहाड़ी इलाकों में दूर-दराज की जगहों के बीच हाई कैपेसिटी वाले वायरलेस लिंक बनाने की क्षमता देता है. ताकि, यूजर नेटवर्क की रेंज बढ़ाई जा सके. आपदा की स्थिति को आसानी से मैनेज किया जा सके और टैक्टिकल खतरों का असरदार तरीके से जवाब दिया जा सके. इसकी फ्रिक्वेंसी बैंड की बात करें तो यह सिस्टम C बैंड (4–8 GHz) पर काम करता है.

कॉम्पैक्ट ट्रांसहोराइजन संचार प्रणाली (फोटो- ETV Bharat)
यह सॉल्यूशन कमांड और टैक्टिकल लेवल के बीच भरोसेमंद आईपी (IP) नेटवर्क कनेक्टिविटी दे सकता है. कम्युनिकेशन दूरी की बात करें तो ट्रोपो/डिफ्रैक्शन (Tropo/Diffraction) मोड में 60 किमी और एलओएस यानी लाइन ऑफ साइट (LOS) मोड में 100 किमी की दूरी तक 20 Mbps तक का डेटा स्पीड प्रोवाइड करता है.
टर्मिनल में कम्युनिकेशन लिंक सेटअप करने के लिए सेंसर असिस्टेड अलाइनमेंट मैकेनिज्म (Sensor Assisted Alignment Mechanism) होता है. जिससे बहुत कम गलती वाला डेटा ट्रांसफर होता है. यानी इसका एरर रेट (BER) 1×10⁻⁶ है. यह एक AI आधारित लिंक प्रेडिक्शन सॉफ्टवेयर इनबिल्ट इंटीग्रेटेड है, जो लिंक कब और कहां बनेगा? इसे पहले से बता देता है. यह पूरी तरह से मैन पोर्टेबल है, जो सिर्फ दो हल्के बैग यानी केस में पैक हो जाता है.

सीटीसीएस टेक्नोलॉजी (फोटो- ETV Bharat)
अगर खासियत की बात करें तो खासकर पहाड़ी इलाकों में जहां लाइन ऑफ साइट नहीं मिलती, वहां भी काम करता है. जो सैटेलाइट कम्युनिकेशन से कहीं सस्ता और ज्यादा बैंडविड्थ देता है. दुश्मन के लिए पता लगाना और जाम करना बहुत मुश्किल है. यह भारतीय सेना के लिए खासकर ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों में एक बहुत बड़ा गेम चेंजर है.
“इसे सीटीसीएस बियोंड लाइन ऑफ साइन यानी उन इलाकों में बड़े-बड़े पहाड़ बीच में होते हैं, वहां कम्युनिकेशन के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है. यह सिस्टम मेन पोर्टेबल है, यानी कोई भी दो आदमी इस सिस्टम को ले जा सकते हैं. कहीं पर भी स्थापित कर सकते हैं. वहां पर इसके जरिए लोगों से कम्युनिकेशन कर सकते हैं. आपदा के दौरान रेस्क्यू ऑपरेशन में इस्तेमाल किया जा सकता है. इतना ही नहीं सिस्टम के जरिए हम डाटा भी ट्रांसफर कर सकते हैं. और 20 mb तक की वीडियो भी ट्रांसफर की जा सकती है.“- चंदन कुमार, वैज्ञानिक (ई), डीआरडीओ डील, देहरादून
सॉफ्टवेयर बेस्ड वायरलेस भी किया गया विकसित: इसके अलावा डिफेंस वैज्ञानिक चंदन कुमार ने सॉफ्टवेयर डिफाइंड रेडियो तकनीक के बारे में भी जानकारी दी. उन्होंने बताया कि ट्रेडिशनल तौर पर हम वायरलेस की फ्रीक्वेंसी और अन्य बदलावों के लिए हार्डवेयर बदलना पड़ता था, लेकिन अब सॉफ्टवेयर बेस्ड वायरलेस भी उनकी लैब में विकसित किया गया है.

सॉफ्टवेयर बेस्ड वायरलैस की जानकारी देते वैज्ञानिक चंदन कुमार (फोटो- ETV Bharat)
वहीं, डीआरडीओ डील की शोधकर्ता डॉक्टर तनुश्री ने बताया कि देहरादून डील लैब में डीआरडीओ विशेष तौर से मध्य पश्चिमी और पूर्वी हिमालय रीजन में आने वाली दिक्कतों से निपटने के लिए कम्युनिकेशन सिस्टम विकसित करने पर काम करता है. सेना को हिमालय क्षेत्र में सबसे ज्यादा भूस्खलन और एवलांच की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. इन आपदाओं में हमारे कम्युनिकेशन सिस्टम सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं.
ऐसे में देहरादून में मौजूद डीआरडीओ की डील लैब डिटेक्शन से लेकर मौसम पूर्वानुमान (Forecast) और अर्ली मॉर्निंग सिस्टम के अलावा कमांड कंट्रोल सभी तकनीक पर काम करता है. उन्होंने कहा कि देहरादून डील विशेष तौर पर कम्युनिकेशन पर काम करता है. जैसे कि डील (DEAL) की एक लैब रक्षा भू-सूचना विज्ञान अनुसंधान प्रतिष्ठान Defence Geoinformatics Research Establishment (DGRE) है. इस लैब से विकसित सिस्टम और सेंसर टेक्नोलॉजी उससे मौसम पूर्वानुमान का अनुमान लगाया जाता है, उसी के आधार पर सैनिकों की गतिविधियों को तय किया जाता है.

कॉम्पैक्ट ट्रांसहोराइजन संचार प्रणाली की बारे में जानकारी (फोटो- ETV Bharat)
वहीं, एनएटीएसएटी-एम (NATSAT-M) तकनीक के बारे में डॉक्टर तनुश्री ने बताया कि इस पर लैब से आने वाले डाटा को ट्रांसमिट किया जाता है. सभी तरह के प्रिडिक्शन इस डिवाइस के जरिए सैनिकों तक पहुंचाया जाता है. इसमें सैटेलाइट की मदद लगती है. इसी तरह से यह सैनिकों को आने वाले लैंडस्लाइड या फिर एवलांच की जानकारी देता है. उसी से सैनिकों की मोबिलिटी निर्धारित होती है.
आम नागरिक के भी आएगा काम: देहरादून डीआरडीओ डील कम्युनिकेशन लैब में कार्यरत वरिष्ठ तकनीकी सहायक बी महेंद्र सिंह ने बताया कि सीटीसीएस (CTCS) टेक्नोलॉजी का लगातार दुर्गम क्षेत्रों में परीक्षण किया जा रहा है, जहां पर जाना मुश्किल है और आवाजाही कम है. इसी के चलते आज गृह मंत्रालय, सेना और नौसेना सभी की तरफ से डीआरडीओ के इस CTCS टेक्नोलॉजी की काफी डिमांड है. यह आने वाले समय में आपदा के दौरान भी काफी काम आ सकता है.
उन्होंने बताया कि इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इस यह पूरा सिस्टम दो बॉक्स के अंदर फिट हो जाता है. जिसे दो लोग कहीं भी ले जा सकते हैं. 5 मिनट के अंदर यह सिस्टम सेटअप हो जाता है. उन्होंने इस तकनीक के बारे में और भी कई बारीक जानकारियां दी. उन्होंने बताया कि अभी फिलहाल गुजरात में इसका ट्रायल किया गया था. इसके अलावा उत्तराखंड के देहरादून में भी लगातार अलग-अलग जगह पर इसका ट्रायल किया जा रहा है.
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