देहरादून: भारत में हर साल कई धार्मिक यात्राएं आयोजित होती हैं. उन सभी धार्मिक यात्राओं का अलग-अलग महत्व है. ये सभी धार्मिक यात्राएं संस्कृति और सभ्यता को जोड़े रखती हैं. ऐसी ही उत्तराखंड में आयोजित होने वाली एक धार्मिक यात्रा है नंदा राजजात यात्रा. जो हर 12 साल में आयोजित होती है. इसे एशिया की सबसे कठिन यात्रा में से एक माना जाता है. इस यात्रा में श्रद्धालु 19 दिन कठिन बुग्यालों की चढ़ाई पार करते हुए लगभग 260 किलोमीटर का पैदल सफर तय करते हैं. साल 2026 में आयोजित होने वाली इस यात्रा को भव्य तरीके से आयोजित करने के लिए उत्तराखंड सरकार कई तरह की तैयारी कर रही है.
दुनिया की सबसे कठिन यात्रा में से एक: उत्तराखंड की नंदा राजजात यात्रा प्राचीन सांस्कृतिक, धार्मिक और ऐतिहासिक धरोहर है. जिसे नंदा देवी राजजात यात्रा के नाम से भी जाना जाता है. इसे सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं, बल्कि विश्व की सबसे लंबी पैदल धार्मिक यात्राओं में से एक माना जाता है. यह यात्रा उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक है. यह यात्रा हर 12 वर्षों में आयोजित की जाती है, जिसमें स्थानीय लोग और देश-विदेश के पर्यटक शामिल होते हैं. इसे हिमालय का ‘कुंभ’ भी कहा जाता है. राजजात यात्रा गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्र की कुलदेवी माने जाने वाली मां नंदा पर आधारित है. यात्रा मां नंदा को उनके ससुराल भेजने की प्रतीकात्मक परंपरा का हिस्सा है. चमोली जिले के नौटी गांव से शुरू होने वाली यात्रा जंगलों, पहाड़ों, नदियों और ऊंचे हिमालयी दर्रों को पार करते हुए रूपकुंड और होमकुंड तक जाती है. यात्रा 19 से 20 दिनों में पूरी होती है.
नंदा देवी राजजात यात्रा की तैयारियों को लेकर आयोजित बैठक में सभी विभागों को आपसी समन्वय के साथ कार्य करने के निर्देश दिए। यात्रा की बेहतर व्यवस्थाओं हेतु जन प्रतिनिधियों, नंदा राजजात यात्रा समिति के सदस्यों और हितधारकों के सुझाव अवश्य शामिल किए जाएं।
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बेहद पौराणिक है यात्रा: बदरीनाथ धाम पुजारी समुदाय और डिमरी समाज के अध्यक्ष आशुतोष डिमरी बताते हैं कि नंदा देवी राजजात यात्रा की शुरुआत पौराणिक और स्थानीय मान्यताओं के अनुसार अलग-अलग है. यह यात्रा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है. कुछ इतिहासकारों और स्थानीय विद्वानों का मानना है कि यह परंपरा गढ़वाल और कुमाऊं के राजवंशों के समय यानी 7वीं से 8वीं शताब्दी के आसपास शुरू हुई.
आशुतो डिमरी का कहना है कि यात्रा मां नंदा की पूजा और हिमालय की पवित्रता से जुड़ी होने के कारण प्राचीन वैदिक और पौराणिक परंपराओं का हिस्सा मानी जाती है. पहली बार इस यात्रा का उल्लेख स्थानीय लोक कथाओं और गढ़वाल-कुमाऊं के इतिहास में मिलता है, जिसमें मां नंदा को हिमालय की देवी के रूप में पूजा जाता था. यह भी माना जाता है कि यह यात्रा कत्यूरी और चंद राजवंशों के समय से संगठित चली आ रही है. हालांकि, आधुनिक समय में यात्रा की विख्यात जानकारी 19वीं सदी से मिली है, जब अंग्रेजों ने उत्तराखंड के क्षेत्रों का सर्वेक्षण शुरू किया.
सचिवालय में नंदा देवी राजजात यात्रा की तैयारियों के संबंध में आयोजित बैठक के दौरान अधिकारियों को यात्रा मार्ग की मरम्मत, स्वच्छता, शौचालय, सुरक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं समेत पेयजल, भोजन और विश्राम स्थलों की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित करने के निर्देश दिए।
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मां की विदाई पर रोते हैं हिमालयवासी: आशुतोष डिमरी बताते हैं कि मान्यता के अनुसार, मां नंदा हिमालय की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी पार्वती का रूप है. स्कंद पुराण और अन्य कई ग्रंथों में नंदा देवी का उल्लेख हिमालय की रक्षक और शक्ति की देवी के रूप में किया गया है. यात्रा की कहानी के बारे में यह भी कहा जाता है कि मां नंदा अपने ससुराल (हिमालय) जाने के लिए इस यात्रा को करती हैं और स्थानीय लोग उन्हें विदाई देने के लिए इस यात्रा में शामिल होते हैं. रौचक बात है कि इस यात्रा की अगुवाई चौसिंग्या खाडू (भेड़) करता है जो हर 12 साल में पैदा होता है.
हिमालय में हो जाती है रौनक: इस यात्रा के इतिहास के बारे में बात करते हुए उत्तराखंड की लोक संस्कृति और इतिहास के जानकार राजीव नयन बहुगुणा कहते हैं कि नंदा राजजात यात्रा का ऐतिहासिक महत्व बेहद समृद्ध है. ये उत्तराखंड के सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास से जुड़ा है. इस यात्रा में राजवंशों की भूमिका जिसमें कत्यूरी और चंद राजवंशों शामिल हैं. उन्होंने ही इस यात्रा को संगठित करके चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और उस समय ये यात्रा राजाओं और स्थानीय समुदायों के बीच एकता का प्रतीक भी थी. हर 12 साल में यात्रा के आयोजित होने के दौरान पहाड़ों की रौनक देखने को मिलती है. गांवों में यात्रा पहुंचने के दौरान गांववासी यात्रा का स्वागत नृत्य करके करते हैं, यात्रा की विदाई बेटी की विदाई की तरह की जाती है. जिससे सभी भावुक हो जाते हैं.
काली भेड़ और चौसिंग्या: यात्रा का आयोजन अगस्त-सितंबर माह में होता है. पिछली यात्रा 2014 में आयोजित हुई थी और अब यात्रा 2026 में होगी. यात्रा की शुरुआत चमोली जिले के नौटी गांव से होती है, जहां मां नंदा की स्वर्ण प्रतिमा पर प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है. इस मौके पर रिंगाल (बांस) से बनी पवित्र राज छंतोली (छत्र) और चार सींग वाला भेड़ (चौसिंग्या खाड़ू) की पूजा की जाती है. चौसिंग्या खाड़ू इस यात्रा का एक महत्वपूर्ण प्रतीक है, जिसे मां नंदा का वाहन माना जाता है. यात्रा में इस भेड़ का ऐसा महत्व है कि ये खाड़ू नौटी गांव या उसके आसपास के गांव में 12 साल बाद पैदा होता है. इसके चार सींग पहचान होते हैं. यात्रा की अगुवाई चौसिंग्या खाड़ू ही करता है. इसके ऊपर मां नंदा के वस्त्र और श्रृंगार की एक पोटली रख दी जाती है. यात्रा के अंतिम पड़ाव में ये हिमालय की ओर खुद ही चला जाता है, जबकि भक्त वापस लौट आते हैं. आज तक यात्रा के इतिहास में ऐसा नहीं हुआ कि खाड़ू इतनी ऊंचाई से वापस आ गया हो.
12 साल बाद ही क्यों आयोजित होती है यात्रा ? उत्तराखंड की लोक संस्कृति और सभ्यता के बारे में लंबे समय से लिखते आ रहे लेखक जय सिंह रावत नंदा राज यात्रा को लेकर कई रोचक बातें बताते हैं. वह बताते हैं कि यात्रा के 12 साल में आयोजित होने का मकसद कई तरह के बताए जाते हैं. कुछ लोग इसे धार्मिक पहलू से इस तरह से जोड़ते हैं कि माता नंदा के रूप में एक लड़की जब अपने ससुराल में थी, तब उसके मायके में एक कार्यक्रम आयोजित हुआ. लेकिन उसे बुलाया नहीं गया और वह बिन बुलाए जब अपने घर के लिए निकली, तब उसके ससुराल के लोगों ने उसे मना किया, लेकिन वह नहीं मानी. उसके बाद उसके साथ कोई दुर्घटना हो गई. पहाड़ों में आना-जाना संभव नहीं था, लिहाजा ससुराल वालों को यह लगा की बहू मायके में है और मायके वालों को यह लगा की बहू ससुराल में है. ऐसा सोचते सोचते 12 साल बीत गए और एक दिन परिवार के सदस्यों के सपने में जब लड़की आई तो उसने कहा कि तुमने मुझे ढूंढने की कोशिश नहीं की. तब जाकर दोनों तरफ से ढूंढने की कोशिश हुई और बाद में वह साधारण सी लड़की नंदा देवी निकली, जिसकी विदाई अब बड़ी धूमधाम से की जाती है.
हालांकि, इसका महत्वपूर्ण पहलू यह है कि उत्तराखंड में आज सड़क है. लेकिन जब यह परंपरा शुरू हुई तब बेहद कठिन रास्ते थे. लोग इस यात्रा में जाने के बाद मान लेते थे कि वह वापस नहीं आएंगे. फिर रूप कुंड हो या स्वर्गरोहिणी, यह ऐसे स्थान थे जहां पर लोग अपने प्राण त्याग देते थे. हर साल यात्रा करना संभव नहीं था, ऐसे में आपदा और अन्य बड़ी दुर्घटनाओं के बाद इस यात्रा को हर 12 साल बाद आयोजित करने का निर्णय राजाओं ने लिया. उस वक्त यात्रा में कई तरह के प्रतिबंध भी था. जैसे यात्रा में महिलाओं का जाना वर्जित था. साल 2014 में शायद पहली बार हुआ जब इस यात्रा में महिला भी गई. यात्रा के दौरान चमड़ा से निर्मित कोई भी सामान या चमड़े के बर्तन इस यात्रा में नहीं ले जा सकते थे. परंतु आधुनिक समय में आयोजित हो रही इस यात्रा में सारे प्रतिबंध टूटे हुए दिखाई देते हैं.
काली भेड़ के बारे में जय सिंह रावत कहते हैं, ऐसा नहीं है कि सिर्फ 12 साल में ही चार सींग वाला भेड़ पैदा होता है. हां, इतना जरूर है कि यात्रा से 1 साल पहले इस भेड़ की तलाश गांव के आसपास के गांव में होने लग जाती है और जैसे ही वह मिलता है तो इसे यात्रा के लिए सुरक्षित रख लिया जाता है और यात्रा की अगुवाई इसके साथ ही की जाती है.
इन मार्गों से होकर गुजरती है यात्रा: यात्रा जिन गांव से होकर गुजरती है, उनमें नौटी से शुरू होकर कुरूड़, कांसुवा, सेम, कोटी, भगवती, कनोल, वाण, नंदकेशरी, पातर, और रूपकुंड जैसे पड़ाव शामिल हैं. ये सभी उत्तराखंड के हिमालय में बसे छोटे छोटे गांव है. अंतिम पड़ाव होमकुंड है, जहां मां नंदा की पूजा और चौसिंग्या खाड़ू की विदाई होती है.
राजजात समिति के अभिलेखों के अनुसार, हिमालयी महाकुंभ नंदा देवी राजजात यात्रा साल 1843, 1863, 1886, 1905, 1925, 1951, 1968, 1987, 2000 और 2014 में आयोजित हो चुकी है. साल 1951 में मौसम खराब होने के कारण राजजात पूरी नहीं हो पाई थी. जबकि, साल 1962 में मनौती के 6 वर्ष बाद साल 1968 में राजजात हुई. साल 2014 में भी यात्रा आयोजित हुई थी.
सरकार करने जा रही है इस बार खास व्यवस्था: उत्तराखंड सरकार ने 2026 में होने वाली नंदा राजजात यात्रा को भव्य और सुरक्षित बनाने के लिए व्यापक तैयारियां शुरू कर दी हैं. मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और मुख्य सचिव आनंद वर्धन ने इस संबंध में कई निर्देश जारी किए हैं. जिसमें सुरक्षा और आपदा प्रबंधन के लिहाज से महत्वपूर्ण सुझाव है. यात्रा चूंकि हिमालयी क्षेत्रों में होने के कारण जोखिम भरी होती है, इसके लिए लोक निर्माण विभाग, पेयजल विभाग, सिंचाई विभाग, स्वास्थ्य विभाग और आपदा प्रबंधन तंत्र को पहले से अलर्ट किया गया है. यात्रियों की सुरक्षा के लिए विशेष दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं. सरकार इस बार यात्रा में आने वाले हजारों भक्तों के लिए यात्रा मार्ग और पड़ावों में अस्थायी शिविर, पेयजल, शौचालय, चिकित्सा और रहने की व्यवस्था उपलब्ध कराएगी.
पर्यटन को बढ़ावा: उत्तराखंड में वैसे तो कई यात्रा होती है. लेकिन इस बार नंदा देवी राजजात यात्रा को लेकर सरकार पर्यटन को बढ़ाने के लिए भी काफी व्यवस्था करने जा रही है. सरकार इस यात्रा को वैश्विक स्तर पर प्रचार करने की योजना बना रही है, ताकि अधिक से अधिक पर्यटक और तीर्थयात्री इस सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा बन सकें. देसी और विदेशी पर्यटक इसलिए भी इसमें रूचि दिखाते हैं, क्योंकि हिमालय के खूबसूरत और अनछुए बुग्याल, झरने और पहाड़ियों से पर्यटक रूबरू होते हैं. यात्रा में आने से पहले सभी का ना केवल मेडिकल चेकअप होगा, बल्कि सुरक्षा के लिहाज से रजिस्ट्रेशन भी अनिवार्य होगा. हिमालयी क्षेत्र की कठिनाइयों के कारण केवल शारीरिक रूप से स्वस्थ और अनुभवी लोग ही इस यात्रा में शामिल हो सकेंगे.
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